सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

सितंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शरत चंद्र की ‘अकेली' मेरी लकीरों में

शरत चंद्र का कहानी-संकलन 'अकेली' स्कूल के दिनों में पढ़ा था। ये वही अकेली लड़की है जिसकी कहानी उस संकलन में छपी थी और रंगीन चित्र, आवरण पर। मुझे बहुत पसंद आई, मैंने पेंसिल से उतार लिया। वो पेंसिल जिससे स्कूल के काम करती थी। सन 1982 में! तब लिखने-पढ़ने और लकीरें खींचने का जूनून सर पर सवार था।  जब शरत चंद्र को पढ़ना शुरू किया तो उपन्यास समझने की उम्र नहीं थी, शरत चंद्र के उपन्यास की तो बिलकुल भी नहीं। लेकिन पढ़ती थी, क्योंकि जितना समझ आता था वही बहुत अनूठा था। बंगाल की मिट्टी की खुशबू में सराबोर उपन्यास मँझली बहन, परिणीता, बड़ी दीदी, शुभदा, बिराज बहू (बिराजबौ), गृहदाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास एक एक-कर के पढ़ गई।  शरत चंद्र कथा शिल्पी थे। कमाल की लेखनी थी - 100 साल से भी पुरानी उस जीवन शैली का चित्रण इतनी खूबसूरती किया था कि पूरा बंगाल मेरी आँखों में उतर आया था। पहनावा, आचार-विचार, भोजन शैली, रिश्ते-नाते, लोक व्यवहार, रीतियाँ-कुरीतियां, शोषण-अत्याचार, उत्सव-त्योहार कुछ नहीं छूटा उनकी लेखनी से। अपने कथानक के तानों-बानों में वह सबकुछ बड़ी खूबसूरती से बुन देते थे। पंडित मोशाय, दर्...

हिंसक बहू, उपेक्षित बुजुर्ग और कुछ अनकहे पहलू

वृद्धावस्था में बहू की उलाहना और उपेक्षा सचमुच मन को तोड़ देती है। बहू का सपना बेटे के जन्म के साथ ही संजो लिया था , और बेटे की परवरिश के साथ अपने सुकून भरे बुढ़ापे का सपना भी। बहू आई , धीरे-धीरे समय सरकता हुआ बुढ़ापे तक पहुँच गया। लेकिन वो नहीं हुआ जो सोचा था …. आम परिवारों में बहुधा यही देखने को मिलता है। सास-ससुर को भूखा रखना , समय पर दवा न देना , बात-बात पर झगड़ना और उनके साथ मारपीट करना- ये कुछ ऐसी अशोभनीय बातें हैं जो किसी बहू से अपेक्षित नहीं होती हैं। जब ये ख़बरें बनकर अख़बारों में छपती हैं या टीवी पर दिखाई जाती हैं तो बरबस ही भावनाएं फूट पड़ती हैं। मन द्रवीभूत हो जाता है। बुजुर्गों के कातर स्वर , बेबस आँखें और जीवन से विरक्ति के भाव दिल को अंदर तक झकझोर देते हैं। सोशल मीडिया पर वीडियो देखकर ‘ कलयुगी बहू ’, ' औरत के नाम पर कलंक ' जैसी उपमाएं मिलने लगती हैं। उसके कृत्य सचमुच अमानवीय हैं ; भर्त्सना होती है , होनी भी चाहिए। लेकिन क्या इससे घटनाएं रुक जाएँगी ? क्यों नहीं उन परिस्थितियों पर चर्चा होनी चाहिए जो इन घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं ? क्यों नह...

राजगायिका बन्नो बेगम: उनसे मुलाकात अब यादों में रह गई है

ऐसी खुद्दार कलाकार शायद अब कभी देखने को न मिले। राजगायिका बन्नो बेगम इस धरती पर दोबारा नहीं पैदा हो सकती। देश की आज़ादी के बाद राजतन्त्र ख़त्म हो गया और नयी सुबह ने दस्तक दी। लेकिन राजाश्रय में रहने वाले कलाकार और हुनरमंद लोग इस नएपन में असहज महसूस कर रहे थे। वजह ये नहीं कि उन्हें आज़ादी पसंद नहीं। वजह ये थी कि कला और कलाकार की क़द्र जो राजमहल में थी वह राजतन्त्र में लुप्त हो गई। कठोर अनुशासन और मुश्किल तालीम से गुजर कर कला के मौलिक स्वरुप को रजवाड़ों तक प्रतिष्ठित करने वाले ये कलाकार महाराजाओं की दृष्टि में सर्वोत्कृष्ट थे। राजाश्रय से लोकगीत की परम्पराओं को संरक्षण व सम्मान मिला। राजगायिका बन्नो बेगम अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी की गायिका थीं। उनकी माँ , और माँ की माँ यानि नानी भी बहुत सम्मानित शास्त्रीय गायिका थीं। संगीतज्ञों के साथ ही उनकी संगति थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ये महिलाएं उन्नीसवीं सदी में कितनी प्रगतिशील थीं। राजस्थान का कोई रजवाड़ा ऐसा नहीं था जहाँ बन्नो बेगम ने अपनी सुरीली आवाज़ का जादू नहीं बिखेरा हो। आजादी के बाद सरकारी अतिथियों के सम्मान में गायकी के लिए सरकार ...