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हिंसक बहू, उपेक्षित बुजुर्ग और कुछ अनकहे पहलू




वृद्धावस्था में बहू की उलाहना और उपेक्षा सचमुच मन को तोड़ देती है। बहू का सपना बेटे के जन्म के साथ ही संजो लिया था, और बेटे की परवरिश के साथ अपने सुकून भरे बुढ़ापे का सपना भी। बहू आई, धीरे-धीरे समय सरकता हुआ बुढ़ापे तक पहुँच गया। लेकिन वो नहीं हुआ जो सोचा था….
आम परिवारों में बहुधा यही देखने को मिलता है। सास-ससुर को भूखा रखना, समय पर दवा न देना, बात-बात पर झगड़ना और उनके साथ मारपीट करना- ये कुछ ऐसी अशोभनीय बातें हैं जो किसी बहू से अपेक्षित नहीं होती हैं।
जब ये ख़बरें बनकर अख़बारों में छपती हैं या टीवी पर दिखाई जाती हैं तो बरबस ही भावनाएं फूट पड़ती हैं। मन द्रवीभूत हो जाता है। बुजुर्गों के कातर स्वर, बेबस आँखें और जीवन से विरक्ति के भाव दिल को अंदर तक झकझोर देते हैं। सोशल मीडिया पर वीडियो देखकर कलयुगी बहू’, 'औरत के नाम पर कलंक' जैसी उपमाएं मिलने लगती हैं। उसके कृत्य सचमुच अमानवीय हैं; भर्त्सना होती है, होनी भी चाहिए। लेकिन क्या इससे घटनाएं रुक जाएँगी? क्यों नहीं उन परिस्थितियों पर चर्चा होनी चाहिए जो इन घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं? क्यों नहीं उन बातों पर विचार होना चाहिए जो भविष्य में नियति को कठोर होने से रोक ले? इन घटनाओं का व्यवहारिक पक्ष देखना बहुत जरूरी है। इस पर गंभीरता से सोचना होगा। आलोचनाएं कर लेना भर काफी नहीं है। 

बहू के साथ ससुराल में व्यवहार
जब नई बहू ससुराल आती है तो कुछ दिन रस्मोरिवाज और मुँह-दिखाई में बीत जाते हैं। उसके बाद दोनों पक्षों के बीच की औपचारिकताएं हटने लगती हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियां, परम्पराएं और जरूरतें उसे बता दी जाती हैं। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन इसकी पालना जिस तरह करवाई जाती है, वह दुराग्रहपूर्ण होता है और दूर तक असर छोड़ता है। इसपर परिवारों में कभी भी सोच-विचार नहीं किया जाता। बहू की अस्वस्थता को बहाना बताना, उस पर आवश्यकता से अधिक काम लाद देना, बुजुर्गों या पुरुषों के बाद खाना खाने की अनुमति देना, गलती करने पर गालियाँ सुनाना, उसके माता-पिता को दहेज़ या किसी अन्य बात के लिए उलाहनाएं देना, उसके निजी खर्चों पर सख्ती करना आदि आपसी कटुता का कारण बनते हैं। कटुता में हिंसा के समावेश से रिश्ते की दरार गहरा जाती है। इस हिंसा में प्रायः परिवार के साथ पति भी शामिल होता है।
जिन बहुओं ने वृद्धावस्था में सास के साथ दुर्व्यवहार किया या उन्हें मारा-पीटा उनका कहना है कि जब पति पीटता था तो सास देखती रहती थी। रोकती नहीं थी, उसका बचाव करती थी। बल्कि सास की शिकायत ही मार खाने का कारण होती थी।

पति से पिटाई खाती पत्नी
ऐसे अनेकानेक मामले सामने आते हैं जहाँ पत्नी पति से पिटाई खाती है। महिला थानों और संगठनों तक जो मामले पंहुच जाते है वहां तो पुरुषों और परिजनों को पाबंद कर दिया जाता है, और कानूनी करवाई का भय दिखाया जाता है। कुछ समय पहले हरियाणा में सास के साथ बहू के दुर्व्यवहार और मारपीट करने की घटना प्रकाश में आई। उसके पति ने टीवी कैमरे के सामने स्वीकारा कि वह कभी-कभी पत्नी को पीटता है; हालाँकि उसे अपनी माँ के साथ पत्नी के किये बर्ताव पर बहुत आपत्ति थी। उसका तर्क था घर आने के बाद पत्नी का फ़र्ज़ है कि उसे खाना खिलाए न कि माँ की बुराई करे। इसलिए जब पत्नी बुराई करती है तो हाथ उठ जाना स्वाभाविक है। गोया पत्नी पर हाथ उठाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है।
अगर मनोविज्ञान को ठीक से समझें तो हिंसक व्यवहार की कड़ियाँ आपस में जुड़ जाएँगी। जब बहू अपने आप को विवश पाती है तो पिटती है, ये उसकी लाचारी है। मौका पाने पर वह प्रतिशोध लेती है। जो लाचार दिखता है उसपर वही तरीका आजमाती है। पति सबल है, उसको पीट नहीं सकती है। उसका साथ देने वाली सास निर्बल है, उससे बदला निकाल लेती है। पति ने न पीटा हो, कभी सास से पिटी हो तो भी प्रतिशोध ऐसे ही निकलता है। आम तबके की पारिवारिक ज़िन्दगी में यह बात दिनचर्या का हिस्सा होती है। छोटी आमदनी वाले परिवार जहाँ पुरुष आभाव के बावजूद नियमित नशे का इंतज़ाम कर लेते हैं वहां औरत का पिटना उसकी नियति होती है। उसे यह नहीं पता होता कि ये अपराध है, बल्कि मौका मिलता है तो वह भी हिंसक रूप धारण कर लेती है। 

बहू से अपेक्षा, मगर किस आधार पर?
माध्यम और निम्न परिवारों में बहू शब्दों की मार बहुत झेलती है। घर में उसका सीधा संपर्क सास से होता है इसलिए सास के ताने सबसे अधिक सुनती है। गाहे-बगाहे ससुर, जेठ, देवर, ननद भी सुना देते हैं। वैसे उनका काम सास के माध्यम से प्रायः हो जाता है। बहू के चाल-चलन, रहन-सहन, पहनावा और कामकाज की शैली आदि बार-बार कसौटी पर कैसे जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उसमें कमियां नहीं होतीं। पर जिन शब्दबाणों से उसे बेधा जाता है वह कमियां दूर करने के लिए कम, आहत करने के लिए ज्यादा होती हैं। इसमें भी अपेक्षा रखी जाती है की बहू सुनकर चुप रहे। सम्मिलित परिवार में बहू सार्वजनिक रूप से ऐसे व्यवहार पर अधिक अपमानित महसूस करती है। ससुर उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाली टिप्पणी करे तो सम्मान और स्नेह का रिश्ता स्वतः समाप्त हो जाता है। बहू के मन में कड़वाहट के बीज वहीं बो दिए जाते हैं। आगे चलकर उससे सद्व्यवहार की अपेक्षा किस आधार पर की जा सकती है? उसमें समर्पण भाव पनपने की उम्मीद भी क्यों हो?  

बहू और बेटी एक समान कैसे? 
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि हमारे लिए बहू और बेटी एक समान है। हकीकत ये है कि न दोनों समान हैं, न हो सकती हैं। दोनों के अधिकार और कर्तव्य में अंतर है और यह अंतर बना रहना चाहिए; तभी बहू का सम्मान रहेगा, वह जिम्मेदार रहेगी, घर को अपनाएगी और बेटी भी मायके में अपनी सीमाएं समझेगी। लेकिन होता क्या है? माँ, बेटी की हर बात का ख्याल रखती है। अपने मन की छोटी-बड़ी बात उसी से साझा करती है। बेटी शादीशुदा हो या अविवाहित, माँ के लिए सबसे करीबी होती है। ऐसा करीबी रिश्ता वह माँ बहू से कायम नहीं करती। बेटी को डांटने के बाद पुचकार भी लेती है, बहू को नहीं।   
पिता द्वारा भी जो स्नेह बेटी पर लुटाया जाता है वो बहू को नहीं मिलता। बल्कि ससुराल आने के बाद वह तिरस्कृत होने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लेती है। और जहाँ प्रत्युत्तर या वाद-विवाद करती है तो सुनने को मिलता है- 'इस जगह यदि तुम्हारे पिता होते तो भी यही जवाब देती'? यह किसी को नहीं समझाया जा सकता है कि उसके पिता ऐसा व्यवहार नहीं करते। ठीक वैसे ही जैसे वह अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं करते हैं। दरअसल यह दूसरों की बेटी के साथ किया जाने वाला व्यवहार है। अपनी बेटी हमेशा मायके में सम्मान की पात्र होती है।
अब माँ की भूमिका देखें। वह बहू के उन मामलों में भी अपनी सोच को आरोपित करना चाहती है जिनका उससे सीधा-सीधा सम्बन्ध नहीं होता। यह सोचने की जहमत उठाती कि बहू की बातों में उसके बेटे के निर्णय भी शामिल हैं। अगर बात महत्वपूर्ण है तो दोनों को बैठा कर बात करें, महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर उन्हें अपनी ज़िन्दगी जीने दें। बहू को खरी-खोटी सुनाना और ये कहना कि 'मेरा बेटा ऐसा नहीं है- ये जुमले माँ और सास का फर्क बताते हैं। मातृत्व के कुछ गुण सास बनने के बाद नष्ट हो जाते हैं। अगर वह कायम रहते हैं तो सिर्फ अपने बच्चों के लिए। इसलिए जिस तरह बहू को नए रिश्ते अपनाने की सीख दी जाती है वैसे ही सास को नए बंधन को समझने की सलाह मिलनी चाहिए। बेटा उसकी छत्रछाया से निकलकर अपने जीवन की नई परिकल्पनाओं को साकार कर रहा है, माँ इसे स्वीकार नहीं पाती। बेटे की ज़िन्दगी करवटें बदल रही है, इसे भी समझना नहीं चाहती। इसकी वजह वह बहू में ढूंढ़ती है, और उसी को निशाने में लेती है। माँ भूल जाती है कि बेटे की कोई व्यक्तिगत जिंदगी भी है और कुछ अपने वैचारिक पहलू हैं।
लेकिन यही बात बेटी के मामले में याद रखती है। बेटी अगर कुछ पूछे तो उसे सलाह देती है कि तुम्हारा पति जैसा कहे, वैसा करो। बेटी के प्रति आत्मीयता और बहू पर आरोप। यही कारण है कि माता-पिता की सेवा के लिए बेटी दौड़ी चली आती है, जबकि वही बेटी ससुराल में सास-ससुर की सेवा नहीं करती। जिस बात के लिए सास-ससुर अपनी बहू को नाहक अपशब्द सुनते हैं उसी बात के लिए अपनी बेटी को ससुराल में मानसिक यातनाएं झेलते नहीं देख पाते। यह व्यवहार का दुहरापन है।  
अब तो माता-पिता को दरकिनार करने में बहुधा बेटों का हाथ देखने को मिलता है। कभी विचारधारा के टकराव के नाम पर कभी पत्नी के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के नाम पर-  वह खिन्न रहता है और उनसे मुक्ति चाहता है। फिर बहू भी उनसे उसी बेरूखी से पेश आती है।  

बेटी के माँ-बाप भी कम नहीं
कभी-कभी बेटी के माँ-बाप ही उसके ससुराल में कलह का कारण बनते हैं। उसे अपने प्रभाव में रखकर नए घर को अपनाने का मौका नहीं देते। बेटी की भावनात्मकता को अपने लिए भुनाते हैं। अपने यहाँ वैसी सुख-सुविधा दी हो या न दी हो, बेटी के लिए वहां सबकुछ चाहिए। जब ससुराल की सम्पन्नता लालच का कारण बनती है तो सास-ससुर पर वे मार-पीट और दहेज़ उत्पीड़न का आरोप लगा देते हैं ताकि धन ऐंठा जा सके। कानून का दुरूपयोग करने में संकोच नहीं करते।
आज परिवार में बुजुर्ग अलग-थलग पड़ गए हैं। उनका वक्त निकल चुका है, वे वक्त की धारा नहीं मोड़ सकते। समस्या की व्यापकता को देखते हुए अब पुनर्विचार करना होगा कि बच्चों की परवरिश कैसी हो, शादी के बाद उनसे क्या व्यहार रखें और स्वयं अपने बुजुर्गों के साथ किस तरह पेश आएं- क्योंकि बच्चे वही सीखते हैं और भविष्य में अनुसरण करते हैं।
स्नेह और मान-सम्मान का पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण कैसे अवरुद्ध हो गया? वक्त रहते सोच लें तो अच्छा होगा!

-अमृता मौर्य


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सारगर्भित आलेख!...संस्कारों का हस्तांतरण पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है! आज जो बीज बोयेंगे, कल फसल भी वही काटनी पड़ेगी।

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