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मेरे कबूतर


मेरे ऑफिस की खिड़की आजकल गुलज़ार रहती है। यह सिलसिला नवम्बर से चालू हुआ। हमें यहाँ आए एक महीने ही हुए थे। इससे पहले कि वहां गमले रखते कबूतर के जोड़े ने तिनके रखने शुरू कर दिए। आशियाना जुड़ गया तो एक सुबह उसमें एक अंडा नज़र आया। दूसरी सुबह दूसरा। हम उन्हें हर दिन निहारते थे। ढाई हफ्ते की अकुलाहट के बाद दो प्यारे-प्यारे नन्हे-मुन्ने बाहर निकले। आँखें बंद! हर समय हिलते-डुलते एक दूसरे से उलझते रहते।
इनके माता-पिता ने बड़े प्यार से पाला। खाने-पीने का सामान मुँह में भर कर लाते और दोनों को बारी-बारी से खिलाते। पिता एक पंख से थोड़ा विकलांग है, शायद कभी चोट लग गई है। मगर उड़ने में कोई दिक्कत नहीं है। हफ्ता भर बीता था कि एक चील उड़ती हुई आई, हम भागकर पहुंचते इससे पहले एक बच्चे को पंजे में दबा कर ले गई। हम देखते रह गए, वह हमारी आँखों के सामने बच्चा उठा ले गई। हम मन मसोस कर रह गए। फिर दूसरे बच्चे को बचाने के लिए मैंने खिड़की की कांच और दीवार की सीमेंट को जोड़ते हुए कार्टन का डब्बा काटकर टेप से चिपका दिया।
गर्मी और हवा के थपेड़ों से यह कुछ-कुछ दिनों में हट जाता था। इसलिए इसका ध्यान रखना पड़ता था। यह अकेला बच्चा बड़ा होकर उड़ गया तो कबूतरी ने फिर दो अंडे दिए। इसमें से फिर दो छोटे-छोटे पीले बच्चे निकले। इस बार पूरा ध्यान रखा कि इनकी छत टूटे नहीं, लेकिन आंधी तूफान ने तोड़ ही दिया। हम जब तक बनाते तब तक तो चील का काम बन गया। वह कहीं से अचानक तेज़ी से उड़ती हुई आई और एक बच्चे को फिर उठा ले गई। हमारे लिए यह झटके जैसा था। इसके बाद तो तय कर लिया कि अब कोई बच्चा जाने नहीं देंगे। मैंने उनकी छत पर पॉलीथिन स्टेपल कर दिया ताकि हवा से उड़े नहीं और बारिश से कार्टन भीगकर फटे नहीं। जुगत काम कर गई। यह बच्चा बड़ा हो गया। उसके उड़ने से पहले कबूतरी ने दो अंडे और दे दिए।
इन अण्डों को सेने में कबूतर के जोड़े ने बाल श्रम करवाया। जब वो दोनों नहीं होते तो ये बच्चा अंडे सेता था। मेरे लिए ये बिलकुल नई बात थी। इतनी चिड़ियों को बड़े होते देखा है पर किसी बच्चे को अंडे सेते पहली बार देखा। इस बार घोंसले की छत पुख्ता थी, लेकिन ये भी आंधी तूफान में उड़ती रही और मैं बनाती रही। इस बार के आँधी तूफ़ानों ने सचमुच बहुत परेशान किया। चौथी मंज़िल की खिड़की पर आधा टंगकर मैं टेप, कार्टन और स्टेपलर से नियमित अपनी कारीगरी करती रही। इनके माँ-बाप दूर से निहारते रहते। उनसे मैंने कीमत वसूली; छत ठीक करने के बाद कई बार उनका बच्चा उठा लाई। और पोर्टफोलियो शूट किया।
ये दोनों भी उड़ गए। इसके बाद उम्मीद थी कि घोंसला खाली मिलेगा मगर चंद दिनों में दो अंडे और अवतरित हो गए। मेरी ड्यूटी बाकायदा जारी रही। ये दोनों भी शोर मचाते-मचाते बड़े हो गए। और चार दिन पहले घोंसला खाली कर गए।
असल में खाली कर के कहीं गए नहीं हैं। यहीं डेरा जमाए हुए हैं। खिड़की के बाहर और बगल के छज्जे पर ढेरों कबूतरों का जमावड़ा रहता है। बड़े होकर ये उसमें मिल गए और पहचान में नहीं आते हैं। बड़े होने के बाद जब तक गर्दन का रंग चमकीला नहीं हो जाता तब तक ही इनको पहचाना जा सकता है। मैं भले न पहचानूँ पर मुझे लगता है कि इनमें से मेरे 6 बच्चे मुझे ज़रूर पहचानते होंगे। -अमृता मौर्य

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