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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खुशहाली का टुकड़ा: उसमें मेरे रंग

चुलबुलाते बालकुकुर, मूषक और बालक की यह फैब्रिक पेंटिंग मैंने 28-30 साल पहले पोस्टर देखकर बनाई थी। पढ़ाई के अलावा मन में जो कुछ कुनमुनाता वह या तो कलम से बाहर निकलता या कूची से। हम बचपन में जिस चीज़ को जीते हैं, वह जीवन भर हमारे अंदर जीता है। जब मौका मिलता है, बाहर छलक भी जाता है। मेरी शाम पेड़ों पर या खेतों में गुजरती थी। कोई न कोई जीव-जंतु, चिड़िया, इल्ली (लार्वा) हमजोली के रूप में हमेशा साथ रहे। शलभ की रंग-बिरंगी इल्लियों को हाथ पर चलाने में बड़ा मज़ा आता था। वह हथेली में गुदगुदी करते हुए रेंगती थी। उससे भी मज़ा उसे पत्तियां खाते देखकर आता था। फिर प्यूपा बनने और चक्र पूरा कर शलभ निकलते देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। कैसे तुड़े - मुड़े से पंख थोड़ी देर में सीधे हो जाते और उसे ग्लाइडर बनाकर उड़ा ले जाते। ये मेरे बालपन के सखा हैं। चिड़िये के घोंसले में झाँकना जितना अच्छा लगता था उतना ही चिड़ियों को अमरुद के पेड़ से भगाना। उन्हें नहीं पता था कि उनके जूठे, चोंच मारे अमरूद उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल होंगे। उन्हें यह भी नहीं पता था कि अंडे में से बच्चे निकलने का ज्यादा इंतज़ार कौन कर रहा है। ...