चुलबुलाते बालकुकुर, मूषक और बालक की यह फैब्रिक पेंटिंग मैंने 28-30 साल पहले पोस्टर देखकर बनाई थी। पढ़ाई के अलावा मन में जो कुछ कुनमुनाता वह या तो कलम से बाहर निकलता या कूची से। हम बचपन में जिस चीज़ को जीते हैं, वह जीवन भर हमारे अंदर जीता है। जब मौका मिलता है, बाहर छलक भी जाता है।
मेरी शाम पेड़ों पर या खेतों में गुजरती थी। कोई न कोई जीव-जंतु, चिड़िया, इल्ली (लार्वा) हमजोली के रूप में हमेशा साथ रहे। शलभ की रंग-बिरंगी इल्लियों को हाथ पर चलाने में बड़ा मज़ा आता था। वह हथेली में गुदगुदी करते हुए रेंगती थी। उससे भी मज़ा उसे पत्तियां खाते देखकर आता था। फिर प्यूपा बनने और चक्र पूरा कर शलभ निकलते देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। कैसे तुड़े - मुड़े से पंख थोड़ी देर में सीधे हो जाते और उसे ग्लाइडर बनाकर उड़ा ले जाते। ये मेरे बालपन के सखा हैं। चिड़िये के घोंसले में झाँकना जितना अच्छा लगता था उतना ही चिड़ियों को अमरुद के पेड़ से भगाना। उन्हें नहीं पता था कि उनके जूठे, चोंच मारे अमरूद उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल होंगे। उन्हें यह भी नहीं पता था कि अंडे में से बच्चे निकलने का ज्यादा इंतज़ार कौन कर रहा है।
तितली के लिए फूल के पास घात लगा कर बैठना, और बैठते ही पकड़ लेना - कितना मनभावन खेल था। कभी गलती से तेज़ पकड़ लिया तो अँगुलियों में रंग छप जाते थे; बुरादेदार रंग। तितली का रस पीना कितनों ने देखा है? वह गोल घुमावदार सूंड़ खोलकर फूल का रस पीती है। हमारी भाषा में यह सूंड़ ही है। सूंड़ अकेले हाथी की मिलकियत नहीं है। मक्खी के पास भी सूंड़ है।
एक सुस्त जीव भी हमारे खेतों के पास मंडराता था - घोंघा। गति के मामले में कछुवे का रिश्तेदार है। हरे पौधों से चिपक के बैठता और तबियत से हज़म करता। उसका इलाज था हमारे पास। क्यारी की मेढ़ों पर नमक छिड़क दिया करते। वह आता और लक्ष्मणरेखा से वापस लौट जाता। केंचुए का मिट्टी खाना प्रकृति का अद्भुत करिश्मा है। मिट्टी खाता हुआ वो गोल-गोल मिट्टियाँ निकालता और ज़मीन के अंदर चला जाता। जब सामने खेतों में ट्रेक्टर चलते तो बगुलों के करतब देखते बनता था। पूरा का पूरा हुजूम उसके पीछे उड़ता। ये कीटों की दावत थी।
दावत उड़ाने में सांप माहिर थे। बारिश में कभी-कभी हमारे बरामदे में शरण ले लेते थे। पहले से कोई मेढक वहां शरणागत हो तो एक पंथ दो काज। हमने इन्हें कभी नहीं भगाया, हाँ स्वागत भी नहीं किया। एक बार एक बड़ा सांप शिकार का पीछा करता हुआ पीछे के बंद दरवाजे से आँगन में घुस गया। दरवाजा नीचे से टूटा था। वो शिकार गटक के दरवाजे में अटका हुआ मिला मुझे। आधा बाहर आधा अंदर! पेट गुब्बारा हो चुका था और वो शिथिल। पूँछ खींच-खींचकर उसे अंदर लाती, वो फिर बाहर की राह पकड़ता। अंत में दरवाज़ा खोल कर उसकी रिहाई की। मैंने रास्ते या खेतों में मिले सांप के बच्चे की पूँछ पकड़कर भी उछाला है। बाद में पता चला कि इससे उन्हें चोट लग सकती है। मगर बच्चों के मिट्टी के खेल में भला सांप को क्या नुकसान? हाँ, नुकसान बड़ों के खेल में हुआ जो उसकी खूबसूरत प्रजातियों के लालच में आ गए।
आज जल बचाओ, जंगल बचाओ के शोर सुन रही हूँ। हमने बचपन में कोई जागरूकता अभियान नहीं देखा। मन खुद ही जागा था। पेड़-पौधे, जीव-जंतु और कल-कल बहती नदी के बीच हमने आँखें खोली। नदी में तैरना सीखा, मिट्टी में खेलना सीखा। ये खुशहाली हमें विरासत में मिली थी। इनके साथ एकाकार होने की प्रवृति स्वतः जागृत हुई, सिखाना नहीं पड़ा किसी को। कुकुर, बिडाल और चिड़ियों के बंद आँखों वाले बच्चे हमारे बचपन के संगी हैं। छूने पर सिकुड़ कर गोल हो जाने वाले ग्वाला और ग्वालिन को हम चार आना - आठ आना कहते थे। क्या मज़ाल कि इनको एक कदम भी चलने दें। कीट-पतंगे मुट्ठी में बंद कर लेते थे, जब ज्यादा कुड़कुड़ाते थे तो हम हवा में उछालकर उड़ाते थे। इन सबके साथ खेल कर और इनके गम में टसुए बहा कर हम बड़े हुए हैं। हो सकता है ईश्वर ने इन्हें प्राकृतिक संतुलन के लिए बनाया हो मगर हमारे लिए ये मन बहलाव के साधन थे। सच कहूं तो आज भी हैं। इनमें तनाव हरने की गजब की क्षमता होती है। इनका खुराफाती और उत्सुक स्वभाव जिन भाव-भंगिमाओं में नज़र आता है निश्छलता भी उसी में दिखती है।
मुझे लगता है कि जब हम प्रकृति के नजदीक थे तो ज्यादा इंसानियत वाले इंसान थे, अब मानसिक उलझनों और बेरुखी को निमंत्रण दे बैठे हैं। इंसानियत से रिश्तेदारी को ‘सुविधा की चाह’ और ‘विकास’ ने निगल लिया है। हम मशीन जैसे ढल रहे हैं लेकिन भावनाएँ कभी-कभी इंसानों की तरह भावुक बना देती हैं। जीव-जंतुओं की स्वाभाविक कोमलता, सहजता, अबोधपन और प्रकृति की हरियाली, खुली हवा, उड़ते बादल, स्वच्छ बहता नीला पानी - इन सबका आनंद उठाने की लालसा लिए पहाड़ों या समंदर की सैर को निकल पड़ते हैं।
हमारी छटपटाहट पर सरकार, संस्थाएँ और कॉर्पोरेट की सीएसआर कमिटियाँ करोड़ों के 'पेड़ लगाओ - जल बचाओ' के प्रोजेक्ट से बन्दर-बाँट का खेल, खेल रही हैं। उर्वर भूमि, वन और हरियाली विकास की भेंट चढ़ रही है। कृत्रिमता और सम्पन्नता के दिखावा से हमारा मन छूट ही नहीं पा रहा है। अब तो विकास पहाड़ों, समंदर, जंगल से होता हुआ हमारे गावों को लीलने चल पड़ा है। सावन झड़ियां लगाना भूल गया, हम झूले डालना बिसर गए। शाम को पेड़ पर बसेरे को झगड़ती चिड़ियों के कोलाहल गुम हो गए। इससे आगे बढ़ें - हमारे आस-पास रहनेवाले नन्हें जीव-जंतु रफ़्तार की भेंट चढ़ रहे हैं। वन्य जीवों को शिकारी साफ़ कर रहे हैं और हरियाली को सरकार।
नई पीढ़ी के लिए बचा ही क्या है? फिर उनसे कैसे उम्मीद करें कि वो संरक्षण का अर्थ समझें? उन्होंने प्रकृति को जीया ही कब है? सरलता देखी नहीं है, कोमलता को महसूस नहीं किया। किसी के लिए भावुक होने की वजह जानी कब है? लहरों में उतरे कब हैं? पेड़ों पर चढ़े कब हैं? मिट्टी में लोटे कब हैं? फिर भी हम उनसे उम्मीद करते हैं प्रकृति प्रेम की, जैव संरक्षण की, विलुप्तप्राय जीवों की सुरक्षा की। स्कूल कॉलेज के कैम्पेन कैसे संवेदनशीलता पैदा करेंगे? स्लोगन रटवाकर और कैम्पेन में भेज कर हम किस किस्म के प्रकृति प्रहरी पैदा करना चाहते हैं?
शहर तो लुट चुके हैं। क्यों न अपने-अपने गांव बचा लें! बचपन अभी भी वहां अठखेलियां करता है। जो बचा है उसे बचा लें। और हो सके तो शहर में ही गांव बसा लें!
-अमृता मौर्य
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