जिसका डर था वही हुआ। जब राज्य सरकारें और केंद्र सरकार श्रमिकों को रगड़ते-घिसते मरते-खपते सड़क नापते देख रही थीं तब तुमने अपनी हेल्पलाइन शुरू कर दी। बेचारे भटकते रहे कि प्रशासन से कोई संपर्क हो जाए, तुम सहायता मांगने वालों को व्यक्तिगत रूप से जवाब देते रहे, सामने जाकर मिलते रहे। तुम और तुम्हारी टीम उनके लिए दिनरात दौड़ती - भागती रही। हज़ारों की संख्या में श्रमिकों को तुमने बसों और हवाई जहाज़ से घर पहुँचाया। वे सुविधापूर्वक पहुँच गए। बहुत अनुग्रहित महसूस कर रहे हैं। तुम्हारी सराहना करते नहीं थक रहे हैं। लेकिन गड़बड़ सारी यहीं हो गई है। आपदा को अवसर में बदलने के लिए कोई और बैठा था, बदलकर कोई और उभरता दिख गया। वैसे गड़बड़ की शुरुआत तो तुमने ही की थी जो ज़रुरत के समय काम आ गए। तुम्हें क्या पड़ी थी? मजदूरों की सहायता की जाए या न की जाए, कब की जाए, किन मजदूरों की सहायता की जाए, किनकी छोड़ दी जाए - ये सब राजनीतिक विषय है, वहां पूरा सोच - विचार हो रहा था। तुम कलाकार हो, बीच में टांग अड़ाने की क्या ज़रुरत थी? एक्टर हो तो अपना काम देखो। तुम्हें कुछ पता है क्या? खर्च के मामले में तुम्हारी दरियादिली दे...