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सोनू सूद संभलकर रहना



जिसका डर था वही हुआ। जब राज्य सरकारें और केंद्र सरकार श्रमिकों को रगड़ते-घिसते मरते-खपते सड़क नापते देख रही थीं तब तुमने अपनी हेल्पलाइन शुरू कर दी। बेचारे भटकते रहे कि प्रशासन से कोई संपर्क हो जाए, तुम सहायता मांगने वालों को व्यक्तिगत रूप से जवाब देते रहे, सामने जाकर मिलते रहे। तुम और तुम्हारी टीम उनके लिए दिनरात दौड़ती - भागती रही। हज़ारों की संख्या में श्रमिकों को तुमने बसों और हवाई जहाज़ से घर पहुँचाया। वे सुविधापूर्वक पहुँच गए। बहुत अनुग्रहित महसूस कर रहे हैं। तुम्हारी सराहना करते नहीं थक रहे हैं। लेकिन गड़बड़ सारी यहीं हो गई है। आपदा को अवसर में बदलने के लिए कोई और बैठा था, बदलकर कोई और उभरता दिख गया।

वैसे गड़बड़ की शुरुआत तो तुमने ही की थी जो ज़रुरत के समय काम आ गए। तुम्हें क्या पड़ी थी? मजदूरों की सहायता की जाए या न की जाए, कब की जाए, किन मजदूरों की सहायता की जाए, किनकी छोड़ दी जाए - ये सब राजनीतिक विषय है, वहां पूरा सोच - विचार हो रहा था। तुम कलाकार हो, बीच में टांग अड़ाने की क्या ज़रुरत थी? एक्टर हो तो अपना काम देखो। तुम्हें कुछ पता है क्या? खर्च के मामले में तुम्हारी दरियादिली देखकर कुछ हरकारे भाई लोगों ने पहले ही तुम्हारा करियर खंगाल लिया। सोनू सूद के पास इतना पैसा कहाँ से आया, फ़िल्में तो आ नहीं रही हैं! किसी तरह खंगाल कर बता दिया कि तुमने तमिल-तेलुगु फिल्मों से कमाया है। बाकी तुम्हारी हिंदी की हिट फिल्मों के साथ धीरे से फ्लॉप फ़िल्में भी बता दीं। इशारा समझ लो। भाई लोगों ने यह भी बता दिया कि तुम फिल्मों में भले ही खलनायक हो, असली ज़िन्दगी में अच्छे इंसान हो। वो नहीं बताते तो लोग तुम्हें कभी अच्छा इंसान समझ नहीं पाते।

लेकिन इन श्रमिकों ने जो तुम्हारे प्रति आभार व्यक्त किया है न, वो तुम्हें बहुत भारी पड़ने वाला है। ये घर पहुँच गए, अब शांति से बैठें। ज़रूरी है क्या तारीफों के पुल बांधना? सरकारी बसों की सवारी, श्रमिक ट्रेनों की घुमावदार सेवा में झक मारते लोगों का रुदन और तुम्हारी सेवाओं का लुत्फ़ उठाने वाले कामगारों का उल्लास जो 'कंट्रास्ट' पैदा कर रहा है वो घातक है। वक्र दृष्टि तो पड़ेगी तुमपर। ये कुछ लोगों के लिए छवि चमकाने का मौका था। बेवजह तुम चमक गए, जनसेवक मुँह ताक रहे हैं। कहाँ से टपक गए भाई? रातों की नींद और दिन के चैन से क्या दुश्मनी है तुम्हें?
तुम्हें पता होना चाहिए कि निःस्वार्थ जनसेवा करने के पीछे कोई उद्देश्य होता है। तुमने कोई उद्देश्य क्यों नहीं रखा? नहीं रखा तो अब तुमपर चस्पा किया जाएगा। तुम्हें एक नेता ने 'महात्मा' घोषित कर दिया है। अलग-अलग कचोट तुम्हें नए-नए नाम देगी। तुम स्वीकारो या नकारो; कोई फर्क नहीं पड़ता। लेबल चस्पा होगा ही। फिल्म कलाकार, सेलेब्रिटी होता है; तुम 'सेलेब्रिटी मैनेजर' हो गए। अभी तो तुम अपने प्रदेश के संवैधानिक पद के व्यक्ति से मिले हो, इसी में विवादित हो गए। राजनैतिक व्यक्ति से मिल गए, या कोई अवार्ड के लिए नाम आ गया तो तुम्हारी खैर नहीं। तुम अच्छा काम करो तो भी अवार्ड मिलते तुम्हें घेर लिया जाएगा। कहीं कोई नेता टकरा गया, और तुम्हारी फोटो खिंच गई तो तुम्हें कोई पार्टी ज्वाइन करा दी जाएगी। याद रखना तुम्हारी सादगी, विनम्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि श्रमिकों के अलावा तुम्हारी तारीफ कौन कर रहा है।

तुम फिटनेस फ्रीक हो, फिलहाल इसपर कोई चर्चा नहीं है। तुमने पांव टिकाने के लिए कितनी मेहनत की है, ये भी किसी मतलब की बात नहीं। संघर्ष के दिनों का, तुम्हारे ट्रेन का पास सोशल मीडिया पर घूम गया, बहुत है। अब आगे!
जब किसी सेलेब्रिटी की वाहवाही ज़रुरत से ज्यादा हो जाए तो समझ लो कि उसकी कुंडली उधड़ने वाली है। सोशल मीडिया के ज़माने में ये और भी अपरिहार्य है। व्यूज और रीडर्स खींचने में यही तो काम आता है। बस एक उधड़ा सिरा खोजना है। सेलेब्रिटी को नापने के कई एंगल हैं। फिल्म प्रोजेक्ट और बैंक बैलेंस के अलावा टैक्स चोरी-भुगतान, विदेशी नागरिकता, सुरा प्रेम, लव-अफेयर, ब्रेकअप, नखरे आदि। जो जिस पर सूट कर जाए। परिजनों के अच्छे - बुरे कारनामों की जिम्मेदारी भी उसकी होती है। किसी ने एक सिरा पकड़ा, उधड़ा और सोशल मीडिया यूज़र्स को थमा दिया। बाकी का काम वो कर देते हैं।
सीधी-सीधी बात ये है भाई कि तूने समाज सेवा में खुलेआम हाथ डाला है, जो कि एक धंधा है। लोग एक सेब और दो केले बांटकर राष्ट्रीय स्तर का प्रचार करते हैं। चार कम्बल बांटकर भामाशाह बन जाते हैं। और तो और इधर - उधर सुराख़ बनाकर माल निकाल भी लेते हैं। एक तुम हो, खुद को ही लुटा रहे हो। लुटाओ। तुम्हारी मर्जी। -अमृता मौर्य

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