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वक्त आ गया है लड़कियों !


ज़ायरा वसीम जैसे किशोर बच्चों के लिए समय से पहले वयस्क होने का वक़्त आ चुका है। छेड़-छाड़ और अपराध जिस तरह बढ़ रहे हैं और जितने निर्भीक हो कर हो रहे हैं उससे निपटने के लिए किशोर लड़कियों को अपना दिमाग वयस्कों की तरह चलाना होगा, संशय और संकोच के बदले विरोध का रास्ता अपनाना होगा और जब छेड़-छाड़ हो रही हो तो वहीँ, उसी दम मोर्चा खोल लेने की तैयारी रखनी होगी। जगह छूट जाने के बाद लड़ाई कमजोर पड़ जाती है। बाद में वह हासिल नहीं होता जो उसी दम हासिल हो सकता था। बल्कि अपराधियों का मनोबल और बढ़ता है। अपराध का हर विरोध, अपराध की कड़ियाँ तोड़ने में सहायक होता है और दूसरी लड़कियों को उसका शिकार होने से बचाता है।

छेड़-छाड़ के विरुद्ध जंग के लिए लड़कियों को मानसिक तौर पर दृढ़ होने की जरूरत है। इन घटनाओं से मैं अनेक बार रूबरू हुई जब मैं पढ़ती थी। बस में पीछे बैठे व्यक्ति की फूंक का तब विरोध किया जब पिता के साथ बैठी थी और उन्हें पता भी नहीं था कि पीछे से क्या हो रहा है। एक शाम तो मिनी बस रुकवा कर उतरना पड़ा क्योंकि पीछेवाला, सीट के पीछे से अंगुलियां घुसा कर कन्धा छूने की कोशिश में था। विरोध करने पर मिनी बस में बैठे 4-5 लोगों ने और ड्राइवर ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। गुस्से में बस रुकवाई और उतर गई।

नीचे उतरते हुए या बस में चढ़ते हुए जब भी बस वाला मेरी पीठ पर हाथ लगाता, मैंने हमेशा रोका है। एक दिन हाथ लगा ही दिया, मैंने उतर  कर ट्रैफिक पुलिस से शिकायत की, पुलिस ने दौड़ कर रोका, वो बस लेकर भागने लगा, लेकिन ट्रैफिक पुलिस से रूट पर चलने वाली गाड़ियां कैसे बच सकती हैं? उसके बाद सलटारा कैसे हुआ होगा बताने की आवश्यकता नहीं। दिल्ली में एक शाम इंस्टिट्यूट से लौटते हुए सरकारी बस ड्राइवर ने मेरे लाख आवाज़ें लगाने पर भी बस को भगाते हुए अगले स्टॉप पर जाकर रोका, तो मैंने शिकायत पुस्तिका में शिकायत दर्ज़ कर दी। पुस्तिका सालों से कोरी पड़ी थी। ड्राइवर और कंडक्टर दोनों ने नौकरी जाने की दुहाई देकर बहुत हाथ-पांव जोड़े। मैं बस से उतर कर सड़क पार चली ग, वापसी की बस पकड़ने। 

कभी दिल्ली में सफर करते हुए उस बुज़ुर्ग महिला की नसीहत मैंने गांठ बाँध ली जो उसने बस से उतरते समय मुझे दी थी – ‘ये बाकी बचे 5-6 लोग जहाँ उतरें वहीं उतर जाना, दूसरी बस ले लेना लेकिन अकेले बस में ड्राइवर-कंडक्टर के साथ मत बैठना।’ 2012 में निर्भया की घटना के वक़्त मुझे 1995 की नसीहत बहुत याद आई जो आज की पीढ़ी को कोई या तो देने वाला नहीं है या ये पीढ़ी उसे लेने प्रस्तुत नहीं!

इसी तरह कभी रिक्शे से आते हुए दूसरे रिक्शे पर बैठे व्यक्ति ने फिंकरे कसे थे, सुन कर मैंने अपना रिक्शा उसके पीछे भगाया तो वह कूद कर रिक्शे से भगा, मैं भी पीछे कूदी, सामने ही ट्रैफिक पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उसे कोतवाली ले गयी। रिपोर्ट लिखवाने जैसे कोई बात नहीं लगी लेकिन उसे थाने का रास्ता दिखाना जरूरी था। इसके बाद फिर एक बार स्कूटर पर चलते हुए एक मोटरसाइकिल वाले ने फिकरे कसे और टकरा कर गिराने की कोशिश की। नंबर सहित उसकी शिकायत दर्ज कराई। पहले तो बार-बार पूछा गया कि उसने अभद्र क्या कहा। फिर जगह पर ले जाकर मुझसे तस्दीक करवाई गई। विटनेस (प्रत्यक्षदर्शी) कोई नहीं मिला, मिलना भी नहीं था। यह प्रायः खानापूर्ति होती है। लेकिन, मेरे पीछे पड़ने से रिपोर्ट दर्ज़ हो गयी। उस नम्बर के दूसरी जगहों के अनेक स्कूटर और मोटर साइकिल वालों को आए दिन पुलिस मेरे निवास पर तस्दीक के लिए लेकर आने लगी। अंततः मैंने ही फाइल बंद करवाई। किन्तु हाँ, महीनों तक उस लफंगे की हिम्मत नहीं हुई कि वह अपना मोटरसाइकिल निकाले या मेरे आस-पास के इलाके से गुजर जाए। मगर पड़ोसी उत्सुकता भरी नज़रों से और परिजन थोड़ी शर्मिंदगी से देखते मानो मैं अपराधी हूँ और मेरी पड़ताल में पुलिस चक्कर लगा रही हो!

एक दिन कार मोड़ते हुए जिसने मेरे स्कूटर को टक्कर मारी उसे बहुत दूर तक पीछा करके अंततः उसकी कालोनी में पकड़ा और तरीके से बात समझा कर आई, सामने ही कार नंबर नोट किया। एक कार वाले का स्कूटर से पीछा करके, रास्ता रोक-रोक के रामनिवास बाग़ के चार चक्कर सिर्फ इसलिए दौड़वाये क्योंकि वह भविष्य में फब्तियां कसने और किसी लड़की के वाहन के साथ-साथ चलने से पहले एक बार सोचे।

साइकिल सवार वर्कर को साइकिल छोड़ कर उस वक़्त दौड़ना पड़ा जब एक शाम चांदपोल बाजार में कोई स्टोरी करके मैं अपने स्कूटर तक पैदल जा रही थी। उसके बोलने की देर थी, मैंने लपक कर पीछे से साइकिल का कैरियर पकड़ लिया। वह सकपका गया झटके से नीचे उतरा, मैं कॉलर पकड़ी वह सरपट भागा। झापड़ से बचने में उसकी कॉलर फट गयी। भीड़ भरे बाजार में मैं पीछे वो आगे - और कोई नहीं। कुछ देर बाद मैं एक स्कूटर से टकरा कर गिरी तो 2-3 लोग उसके पीछे हो लिए। वह कहीं अँधेरी गलियों में गायब हो गया। मेरे घुटने छिल गए, खून आने लगा, चुन्नी से पोंछा, घुटने पर फटे पायजामे को कुर्ती से ढककर अगली मीटिंग के लिए रवाना हो गई। वहां से लौटी तो साथ में थाने से 2 पुलिस वालों को भी ले आई। साइकिल वहीं खड़ी मिली जिसके लिए मैं पूर्णतः आश्वस्त थी। कैरियर में सामान और हैंडल में लंचबॉक्स ज्यों का त्यों टंगा था। पुलिस ने जब्त किया, हम अपने रास्ते वापस आ गए। हर जगह मुझे सफलता मिली, ऐसा नहीं है। कई जगह चूक भी गयी।
किरण बेदी के 1993 में तिहाड़ जेल में आई.जी. बनने के काफी बाद मैंने उनका एक टीवी इंटरव्यू देखा था जिसमें उन्होंने कहा कि मैं स्कूल में भी थी तो सारे झगड़े वहीं सलटा कर आती थी- यह बात तभी से आदत में शुमार है, बाद में अफ़सोस नहीं करना मुझे। किसी महिला से ऐसे शब्द मैंने पहली बार सुने थे, अच्छा लगा!        
एक बार मेरे मोबाइल पर किसी अपरिचित का फ़ोन आया और वह भाभी कहकर मुझे गली में मुलाकात की पिछली कोई बात याद दिलाने लगा। एक-दो बार तो मैं समझ नहीं पाई लेकिन फिर दिमाग दौड़ाया। उसका अगला फ़ोन आया तो मैंने डांट दिया लेकिन वो परिहास के साथ कोई मनगढ़ंत संस्मरण सुनाता रहा। दोबारा फ़ोन आए इसके पहले मैं कोतवाली पहुँच गई। वहां मेरे मोबाइल से फ़ोन मिला कर थानेदार ने अपने तरीके से बात की और अंजाम समझा दिया। फिर मुझे फ़ोन देकर माफ़ी मंगवाई! उसकी घंटी मुझे कभी दोबारा नहीं सुनाई दी। उस समय फ़ोन पर सिर्फ नंबर नज़र आया करते थे।

कभी मेरी एक परिचित महिला ने फोन करते हुए कोई गलत नंबर डायल कर दिया। सॉरी, रॉन्ग नंबर - बोल कर फ़ोन रख दिया। फिर वह आदमी पीछे ही पड़ गया। बार-बार फ़ोन कर के परेशान करता। मेरे सामने भी महिला के पास उस व्यक्ति का फ़ोन आया, परेशान महिला ने मुझे बताया। मैंने उसी मोबाइल से उसका नंबर मिलाकर बिलकुल उसी लहजे में महिला पुलिस बनकर डांट लगाई जिस लहजे में थानेदार ने डांटा था। नकली महिला थाना - डेस्क से नकली महिला पुलिस की लताड़ के बाद फ़ोन पर उसने माफ़ी मांगी और धमकी इतनी कारगर निकली की दोबारा फ़ोन करने की हिमाकत नहीं की।

सबसे अधिक हतप्रद करनेवाला मामला मेरे सामने तब आया जब मैं जयपुर यातायात नियंत्रण कक्ष - (मुख्यालय) 'यादगार' के पास खड़ी थी। सामने बुक - स्टाल था, किताबें - पत्रिकाएं देख रही थी। जयपुर में नयी थी, ज्यादा कुछ पता नहीं था। अचानक छत से आवाज़ आई - 'मैडम'! मैं पीछे मुड़कर देखी, 6-8 वर्दीधारी खड़े थे। मैं मुख्यालय के मुख्यद्वार से सीधा ऊपर अधीक्षक के कमरे मैं गई, कमरा खाली था। जिस कमरे में कोई बैठा मिल गया उसी में घुस गई, कहा - 'मुझे छत से आवाज़ देकर किसी ने बुलाया है, कह दीजिये आ गई हूँ। वह पहेली बूझने जैसा चेहरा बना कर मुझे देखने लगे। मैंने कहा कि छत पर सन्देश भिजाइये कि मैडम' आ गयी हैं काम बताएं। तब तक उन्हें पता नहीं था कि मेरा मीडिया से कोई सरोकार है, मगर मेरा आत्मविश्वास देख कर वे घबराने लगे, किसी को भेज कर पता लगाया। मुझे बताया कि पुलिस अकादमी के ट्रेनी हैं, नए लड़के हैं, स्टाफ नहीं; किसने क्या कहा पता कर पाना मुश्किल है। मैं जम कर कुर्सी पर बैठ गई, काम और बन्दे का नाम पता किये बगैर नहीं जाने की ठान एक-डेढ़ घंटे बैठी रही। फिर उसके काफी हाथ-पांव जोड़ने पर उठी और लगभग धमकी के स्वर में बोली कि मैं मीडिया में काम करती हूँ, बुक स्टाल पर आना बना रहेगा। अगर दोबारा ऐसी घटना हुई तो इस 'यादगार' की ईंट से ईंट बजा दूंगी। 'यादगार' के लिए वो दिन यादगार था, छत पर अड्डेबाज़ी फिर कभी नहीं दिखी।

घटनाओं से रूबरू होते हुए मैंने पाया कि सार्वजनिक स्थानों पर छेड़-छाड़ में कोई साथ देने वाला हो या न हो, ये लड़ाई अंत तक लड़ी और जीती जा सकती है; वो भी अपने दम पर। पेशेवर अपराधियों, गिरोह, हथियारबंद बदमाशों, प्रेम-पिशाचों या आँख गड़ाए लम्पटों से लड़ने के लिए व्यूह रचना की जरूरत पड़ती है, लेकिन बाकी मामलों में रौंदने का जिगर, आत्मविश्वास, दृढ़तापूर्वक विरोध और आक्रोश बहुत कारगर हैं। कुछ किले चालाकी से फतह होते हैं और कुछ बलाओं को समझदारीपूर्वक टालना ही उचित होता है। हिंदी के तमाम प्रचलित कहावत, संस्कृत के श्लोक, पंचतंत्र की कहानियों आदि में जो सीख दी गई है वह दुष्कर परिस्थितियों में मार्गदर्शक होती है। चाणक्य को पढ़कर भी अंतरचक्षु खुलते हैं।


अमृता मौर्य

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