सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

"अब कोई किसी दिव्यांग से नहीं पूछेगा कि तुमने जैवलिन क्यों उठाया" - देवेंद्र झाझड़िया


"अब कोई किसी दिव्यांग से नहीं पूछेगा कि तुमने जैवलिन क्यों उठाया"
- देवेंद्र झाझड़िया
*हाथ गवांने का जख्म कब का भर गया मगर लोगों ने जो जख्म दिए वो भरने का नाम नहीं लेता
*सच कहूं तो खुद को सामान्य साबित करना ही चुनौती बन गयी थी 
*स्कूल में सामान्य बच्चों के साथ खेलते हुए जब मैं पहली बार डिस्ट्रिक्ट चैंपियन बना तो इतना खुश हुआ जैसे ओलंपिक जीत लिया हो
*सोच बदलें, नजरिया बदलें; सबकी राहें आसान होंगी

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 'मन की बात' में राजगढ़ (चूरू जिला) के छोटे से गांव जैपुरिया खालसा के युवक का जिक्र करते हैं तो मानना पड़ेगा कि सचमुच ही कोई बड़ी बात होगी। सदी के महानायक जिसकी तारीफों के कसीदे काढ़ते हैं, क्रिकेट की दुनिया के सरताज सचिन तेंदुलकर जिसे मिलने के लिए आमंत्रण देते हैं वह कोई साधारण युवक तो नहीं होगा। ये अपनी धुन में रहता है, अपने ही रिकॉर्ड बनाता और तोड़ता है। खुद को ही हरा कर जीतता है। देश का इकलौता पैरा एथलीट जिसके सीने पर 2 पैरालम्पिक स्वर्ण पदक चमक रहे हैं, देवेंद्र झाझड़िया के अलावा और कौन हो सकता है !  
उसके ख़ज़ाने में राजीव गाँधी खेल रत्न, पद्मश्री और अर्जुन अवार्ड तथा ढेरों राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों का अम्बार लगा हुआ है। सच कहें तो बाएं हाथ से महरूम देवेंद्र के लिए मैडल जीतना बाएं हाथ का खेल है। जैवलिन थ्रो में वह विश्व का सर्वश्रेष्ठ पैरा एथलीट है।
मुस्कुराते सौम्य चेहरे के पीछे जीवन के झंझावातों की अनकही कहानियां छिपी हुई हैं। मन की पीड़ा न कभी किसी से कही, न आँखों से झलकने दी अन्तर्मुखी बालक की अंतर्व्यथा सम्भवतः कोई नहीं जानता। 8 साल की उम्र का एक हादसा उससे उसका बचपन चुरा ले गया। इसके बदले जीवन में संघर्ष और मन में प्रतिस्पर्धा के बीज बो गया। श्रम के स्वेद से सिंचित यह बीज जब अंकुरित हुआ तो विशाल बरगद के मानिंद हो गया ।
उत्कृष्ता के सर्वोच्च  बिंदु पर स्थापित वह खिलाड़ी है  देवेंद्र झाझड़िया। विश्व पटल पर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करने वाले इस विलक्षण खिलाड़ी से मुझे विस्तृत बातचीत का अवसर मिला –

प्र. हँसते-खेलते 8 साल के बालक देवेंद्र ने अपने आपको कैसे संभाला जब एक हाथ शरीर से अचानक अलग हो गया ? 

. मुझे पहला सम्बल घर से मिला। पेड़ पर चढ़ने के दौरान बिजली का तार बाएं हाथ को छू गया। डॉक्टर चाह कर भी मेरा हाथ नहीं बचा सके। लोगों ने भविष्यवाणी कर दी कि ये लड़का अपनी ज़िन्दगी में अब कुछ नहीं कर पाएगा। हर कोई निराशाजनक बातें करता । लेकिन मेरी माँ का सोचना कुछ और था, सबसे अलग था। वह मुझे बाहर जाने को प्रेरित करती और सबके साथ खेलने को कहती। मुझे दूसरे बच्चों से अलग कभी नहीं समझा। उसके चेहरे पर न कभी शिकन आई न ही निराशा। माँ ही नहीं, पूरे परिवार का यही नज़रिया था। मैं उनके लिए पहले जैसा ही था और यही मेरी सबसे बड़ी ताकत बनी। मेरे खेलों की शुरुआत दरअसल यहीं से हुई।

प्र. खेलों में सबने आपको आसानी से स्वीकार लिया ?

. बिलकुल नहीं। घर से निकला तो मुझसे इतने सवाल हुए की मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि ये क्या पूछा जा रहा है। इसी तरह जब मैंने पहली बार जैवलिन उठाया तो मुझपर सवालों के बौछार हो गए - क्यों उठाया?  तुम्हारे किस काम का है ये ? ग्राउंड में क्यों आये हो? तुम्हें पढ़ाई करनी चाहिए, अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर रहे हो आदि आदि। मेरा बाल मन बहुत उद्विग्न हो जाता। तर्क करता कि गलती थोड़े की है मैंने? मैं क्यों न खेलूं? बच्चा हूँ, मेरा भी मन करता है खेलने का, मैं जरूर खेलूंगा। भाला फेंकने का मन कर रहा है तो फेंकूँगालोगों की बातें दिल में इतने गहरे घाव करतीं कि शब्दों में बयां नहीं कर सकता। हाथ गवांने का जख्म कब का भर गया मगर लोगों ने जो जख्म दिए वो भरने का नाम नहीं लेता, वे रह-रहकर कुरेदते रहते। सच कहूं तो खुद को सामान्य साबित करना ही चुनौती बन गई थी। 

प्र. आज कैसा लगता है उसे सोच कर ?

उ. जब मैं खेल रत्न पुरस्कार ले रहा था तो मुझसे सवाल किया गया ये पुरस्कार पैरा स्पोर्ट्स के क्षेत्र में कितना बड़ा बदलाव लेकर आएगा । मैंने कहा कि आज से 22 साल पहले जब मैंने ये सोच कर भाला उठाया था कि मैं खिलाड़ी बनूँगा, तो मुझसे सौ सवाल हुए थे। मगर आज एक दिव्यांग बच्चा ग्राउंड में जाकर जैवलिन उठाएगा तो कोई सवाल नहीं करेगा; ये मुझे पता है - यही बदलाव है। मैंने जीवन का वो दौर देखा है जब ये माना जाता था कि दिव्यांग होने के बाद सामान्य लोगों के साथ नहीं रह सकते, आपकी दुनिया ही अलग हो गई। दुखद बात ये है कि लोग मिलते थे तो सहानुभूति दिखते थे। 'बेचारा क्या करेगा ? अब तो बहुत मुश्किल है' - जैसी बातों से हतोत्साहित करते और बेचारगी का एहसास दिलाते। उनकी दया किसी दिव्यांग को मन से तोड़ने के लिए काफी होती है। मेरे अंदर जो लड़ाई चल रही थी वो सबसे अलग थी, सबकी समझ से परे।

प्र. इस बेचारगी जैसी सोच से आपने कैसे लड़ाई की ?

उ. मुझे चुनौतियां पसंद हैं, सहानुभूति नहीं। अच्छा लगेगा जब कोई ये कहे कि हिम्मत है तो कर के दिखाओ। जोश और जज़्बा तभी आता है। मुझे ये बात बहुत बुरी लगती थी जब कोई माता-पिता के सामने मुझे कमजोर कहता था। उनका बेटा कमजोर नहीं है - यह साबित करना मेरा लक्ष्य बन चुका था। स्पोर्ट्स में आने का मेरा उद्देश्य ही यही था कि मैं कमजोर न कहलाऊं; आप खेलते हैं यानि कमजोर नहीं हैं, यह अपनेआप में उसका प्रमाण है। स्कूल में सामान्य बच्चों के साथ खेलते हुए जब मैं पहली बार डिस्ट्रिक्ट चैंपियन बना तो इतना खुश हुआ जैसे ओलंपिक जीत लिया हो। यह मैडल मेरी ज़िन्दगी में मील का पत्थर साबित हुआ । जीत ने मेरी मजबूती पर मुहर लगा दी।

प्र. खेलों के लिए, विशेष कर दिव्यांग खिलाडियों के सन्दर्भ में कौन सी प्राथमिक कमी महसूस करते हैं? 
उ. आधारभूत सुविधाओं की कमी। इसकी बहुत जरूरत है। जब मैं वैश्विक परिदृश्य में अपने देश को देखता हूँ तो यक़ीन मानिए सुविधाओं के मामले में हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आस-पास भी नहीं हैं। यहाँ प्रतिभाएं बहुत हैं, युवा भी बहुत मेहनती हैं लेकिन सुविधाएँ बिलकुल नहीं हैं। हमें बहुत काम करना है, विशेष तौर पर दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए। सबसे पहले तहसील स्तर पर स्टेडियम बनने चाहिए ताकि ग्रामीण अंचल की खेल प्रतिभाएँ खुद को तराश सकें। मैं अगर अपनी दिली इच्छा बताऊँ तो मैं चाहता हूँ हर दृष्टिहीन बच्चा, हर व्हील चेयर पर बैठा बच्चा बिना परेशानी के सीधा ग्राउंड तक पहुंचे। उसे कहीं बाधा न आये। ग्राउंड पूरी तरह उसको ध्यान में रख बनाया जाए।
प्र. साइरन बजाते एम्बुलेंस को कोई रास्ता नहीं देता, आपको लगता है कि छड़ी या व्हील चेयर के सहारे खिलाड़ी स्टेडियम पहुँच जायेंगे ?

उ. सबसे बड़ी चीज़ है हमारी मानसिकता। हमें अपने आप को बदलना होगा। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हम अपने आप से सवाल करें कि क्या हम अपनी भूमिका सही-सही निभा रहे हैं। सोच बदलें, नजरिया बदलें; सबकी राहें आसान होंगी। 
  
प्र. आपने शुरूआती दौर की आर्थिक कमी से कैसे सामंजस्य बैठाया ?

उ. मेरे माता-पिता कृषक हैं। उनकी आर्थिक स्थिति से मैं परिचित था। मेरे 2 बड़े भाई भी हैं जो उस समय पढ़ रहे थे। स्पोर्ट्स में होने की वजह से मेरे ऊपर खर्च ज्यादा होता था। मैं यह महसूस भी कर रहा था। मगर घरवालों ने कहा कि अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान दो, पूरी मेहनत करो,  व्यवस्था करना हमारी जिम्मेदारी है। यह दबाव मैं स्वतः महसूस करता था कि इतना पैसा घरवालों से नहीं लेना चाहिए। सोचता रहता था कहाँ से कटौती करूँ कि उन पर बोझ कम पड़े। कॉलेज में आने के बाद मुझमें बहुत बदलाव आया। मैंने पिताजी से कहा कि मुझे सिर्फ ट्रैकसूट की जरूरत रहती है, इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए, कपड़े भी नहीं। कॉलेज जाने के लिए बड़े भाई के कपड़े पहन लेता था। उनके साथ बाहर रहकर ही पढ़ाई कर रहा था। बाद में भाई अपने व्यवसाय में लग गए तो मैं खाना भी खुद बनाने लगा। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मैं जिंदगी में कभी निराश नहीं हुआ। परिस्थितियों के अनुसार हमेशा अपने आप को ढाल लिया, बिना किसी शिकायत के।

प्र. आपकी दिनचर्या क्या होती थी ?

उ. सिर्फ ट्रेनिंग और कुछ नहीं। मैं बिलकुल केंद्रित था। कोई दूसरा काम नहीं, कहीं घूमना नहीं, किसी तरह का शौक नहीं। दिनचर्या निर्धारित थी। सुबह नियमित रूप से ट्रेनिंग पर जाता था। इसके अलावा पढ़ाई भी जरूरी थी। माता-पिता कहते थे कि खेल के साथ पढ़ाई अवश्य करो। मैं उनसे मिलने गांव जाया करता, उन्हें चिंता रहती थी। लेकिन मुझ पर विश्वास था कि गलत रस्ते पर नहीं जाऊंगा। मैं वैसा लड़का था ही नहीं। मेरे कुछ सपने थे और उनको पूरा करने की प्रतिज्ञा, जिसपर मैं अडिग था। इससे हिलना संभव नहीं था।

प्र. सुना है आपके जीवन पर कोई फिल्म बनने वाली है ?

. आधिकारिक तौर पर कोई बात नहीं है, बस चर्चा ही हुई है। बायोपिक बनाने के लिए मुझसे किसी ने संपर्क किया गया था। जब तक कुछ निश्चित नहीं हो जाता मैं कुछ नहीं कह पाऊंगा। मगर हाँ, फिल्म बनी तो मैं इतना कहूंगा कि एक बार देखने बैठेंगे तो बीच में छोड़ नहीं पाएंगे।

प्र. राजस्थान में एकेडमी की मंशा आपने जाहिर की थी .....

. अगर सरकार कुछ करती है तो मैं सहयोग के लिए पूरी तरह तैयार हूँ। हमारे देश से खिलाड़ी ट्रेनिंग के लिए विदेश जाते हैं। मेरा सोचना है कि हम एक ऐसी एकेडमी तैयार करें जहाँ विदेशी खिलाड़ी आकर ट्रेनिंग लें। इसमें सरकार की भागीदारी बहुत जरूरी है। वह ज़मीन दे, बिल्डिंग बना कर दे और ट्रेनिंग के लिए ओलिंपिक के बड़े-बड़े खिलाड़ियों को नियुक्त करे। राष्ट्रीय कैंप भी वहीँ आयोजित हों, शीर्ष खिलाड़ियों के निरीक्षण-प्रशिक्षण में। लेकिन यहाँ मैं एक बात कहना चाहूंगा, यह एकेडमी स्पेशल एकेडमी होनी चाहिए। ये नहीं कि यहाँ हर तरह के टूर्नामेंट हों। अगर 'थ्रो' की एकडेमी हो तो सिर्फ 'थ्रो' ही हो। चाहे सामान्य और दिव्यांग दोनों खिलाड़ियों को साथ प्रशिक्षण मिले, पर अलग-अलग तरह के खेलों का मिश्रण नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता, खेल विशेष पर मेहनत करने से ही मिलेगी। विश्व स्तर की प्रतिस्पर्धा जीतना चाहते हैं तो हमें 'स्पेशल' बनना पड़ेगा। 

प्र. इस विषय पर मुख्यमंत्री से आपकी कोई बात हुई ?

. मैंने खेलमंत्री श्री गजेंद्र सिंह खींवसर जी से अपनी भावना साझा की थी। मैं चाहता हूँ कि वह इस विषय में दिलचस्पी लें और मुख्यमंत्री से बात करें। खेल विभाग उनके पास है, वह पहल कर सकते हैं। मैं पूरा सहयोग करूँगा। मुख्यमंत्री से इस विषय पर कोई विशेष बात नहीं हुई है। 

प्र. प्रधानमंत्री मोदी आपकी किस बात से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए? उन्होंने मन की बात में आपका जिक्र किया
उ. जब उनसे मिला तो उन्होंने मुझसे पूछा 'कितनी एकाग्रता है आपमें ये बताओ।' मैं हतप्रद ! अबूझ पहेली सा ये सवाल। मैंने कहा 'मैं समझा नहीं।'  वह बोले 'एक गोल्ड मैडल के लिए 12 साल इंतज़ार करना कोई आसान बात नहीं है। 12 साल में अवस्था बदल जाती है, मन बदल जाता है, और बहुत कुछ बदल जाता है। 2004 के बाद 2016 में फिर पुनः रिकार्ड तोड़ना नामुमकिन को मुमकिन करने जैसा है। इतनी एकाग्रता कहाँ से आयी ?' मैंने जवाब दिया, ‘जीवन में सिर्फ एक ही काम सीखा है- जैवलिन थ्रो। इसे तो भूल ही नहीं सकता। बेशक इसके पीछे कड़ी मेहनत और अनुशासन है। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरा उल्लेख उनके मन की बात में आया। उन्होंने अपनी बात में एक किसान के बेटे का और देश के लिए उसके योगदान का ज़िक्र किया। मोदीजी से मिलकर बहुत सुखद अनुभूति हुई। वह बहुत ऊर्जावान व्यक्ति हैं। 2-3 बार मिल चुका हूँ।

प्र. 12 साल का अंतराल काफी लम्बा होता है। इस बीच आपकी कैटेगरी पैरालिम्पिक से बाहर क्यों रही ?
उ. इंटरनेशनल पैरालिम्पिक कमिटी इवेंट में बदलाव करती रहती है। कभी शॉटपुट, कभी जैवलिन, कभी डिसकस थ्रो की स्पर्धा कम कर दी जाती है ताकि टूर्नामेंट सीमित रहे। पैरा गेम्स में कैटेगरी बहुत ज्यादा होती हैं। मैं एफ 46 कैटेगरी में खेलता हूँ। मेरा इंतज़ार बहुत लम्बा था। 12 साल बाद बारी आई। 12 साल का एक-एक दिन मेरे लिए नया दिन था। हर दिन एक नई उम्मीद का दिन होता। लेकिन जब इंतज़ार लम्बा होता है और परिणाम सुखद, तो ख़ुशी दुगनी हो जाती है।   

प्र. आप दूसरे खेलों में भी दिलचस्पी लेते नज़र आते हैं, और कौनसे खेल पसंद हैं ?   

उ. खेल कोई भी हो, मेरी नज़र में सब अच्छे हैं। बास्केटबॉल, बॉलीबाल, कबड्डी सभी पसंद हैं। खेल टीमवर्क है, यह टीम भावना सिखाता है, इच्छाशक्ति को बढ़ता है और अनुशान सिखाता है। मैं खेल को किसी मैडल के नज़रिये से नहीं देखता हूँ। यह मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है, इसलिए सभी खेल मुझे उतने ही प्रिय हैं। अभी प्रो-कबड्डी के दौरान अजय ठाकुर को अवार्ड देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह एक शानदार खिलाड़ी हैं। वो मेरे पास आये और बोले कि आपके हाथों पुरस्कार पाकर मैं आज बहुत खुश हूँ। सच कहूँ, इतने बड़े खिलाड़ी हमें सम्मान दे रहे हैं, इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है हमारे लिए। 

प्र. शुरू में ब्रिटेन ने अपने देश से खेलने का निमंत्रण दिया था, आज क्या विचार आता है ?

उ.  सन 2003 में ब्रिटिश ओपन चैंपियनशिप में वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ा था, तब उन्होंने ग्रीन कार्ड देने की पेशकश की थी और अपने यहाँ से खेलने का निमंत्रण दिया था। अगले ही साल 2004 में एथेंस में पैरालिम्पिक खेल होने थे। मेरे दिल ने उनकी बात स्वीकार नहीं की, सुनते ही इंकार कर दिया। मुझे ये भी सोचना था कि जिस दिन स्वर्ण पदक जीतूंगा उस दिन किस देश का राष्ट्रीय ध्वज मेरे हाथ में होगा। मैं ब्रिटैन का ध्वज लेकर कैसे चल सकता हूँ? लोगों ने मुझसे कहा कि आप बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं, वहां खेलों में काफी पैसा मिलता है। लेकिन मैंने जो सोच लिया वह नहीं बदला। आज वही लोग कहते हैं कि आप सही थे हम गलत।

प्र. आपके खेल जीवन को स्वर्णिम बनाने में किस कोच का योगदान है?   

उ.  सबसे पहले मैं अपने माता-पिता का नाम लूंगा, वे मेरे प्राथमिक कोच हैं। उसके बाद आर डी सिंह जी मेरे कोच रहे। वह एक बेहतरीन कोच हैं, भारत सरकार ने उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से नवाज़ा है। रियो पैरालिम्पिक के मेरे कोच सुनील तंवर जी हैं, आज भी उन्ही से ट्रेनिंग ले रहा हूँ। मैंने देखा है कि जीत पर खिलाड़ी से ज्यादा कोच की आँखों में ख़ुशी की चमक होती है।    

प्र. आपको अनगिनत सम्मान मिले। इतने सारे मैडल और पुरस्कार आपने कहाँ सजा रखे हैं ?

उ.  मैडल-अवार्ड कभी सजाये नहीं अपनी ज़िन्दगी में। सोचता हूँ इन्हें लाने पर मेहनत कर लूँ, सजानेवाला काम बाद में करूँगा। अभी अपना घर बनवा रहा हूँ, 6 महीने में तैयार हो जायेगा। फिर सजावट भी कर लूँगा। 

पदक एवं पुरस्कार

स्वर्ण पदक: पैरा एशियाई खेल 2002
स्वर्ण पदक: एथेंस पैरालिंपिक 2004
अर्जुन पुरस्कार 2004
पद्मश्री (प्रथम पैरा एथलीट) 2012
फिक्की पैरा-स्पोर्ट्स ऑफ द इयर 2014
स्वर्ण पदक: रियो पैरालिम्पिक 2016
राजीव गांधी खेल रत्न 2016
(अभी स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया में कोच के पद पर कार्यरत)


अमृता मौर्य


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

राजगायिका बन्नो बेगम: उनसे मुलाकात अब यादों में रह गई है

ऐसी खुद्दार कलाकार शायद अब कभी देखने को न मिले। राजगायिका बन्नो बेगम इस धरती पर दोबारा नहीं पैदा हो सकती। देश की आज़ादी के बाद राजतन्त्र ख़त्म हो गया और नयी सुबह ने दस्तक दी। लेकिन राजाश्रय में रहने वाले कलाकार और हुनरमंद लोग इस नएपन में असहज महसूस कर रहे थे। वजह ये नहीं कि उन्हें आज़ादी पसंद नहीं। वजह ये थी कि कला और कलाकार की क़द्र जो राजमहल में थी वह राजतन्त्र में लुप्त हो गई। कठोर अनुशासन और मुश्किल तालीम से गुजर कर कला के मौलिक स्वरुप को रजवाड़ों तक प्रतिष्ठित करने वाले ये कलाकार महाराजाओं की दृष्टि में सर्वोत्कृष्ट थे। राजाश्रय से लोकगीत की परम्पराओं को संरक्षण व सम्मान मिला। राजगायिका बन्नो बेगम अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी की गायिका थीं। उनकी माँ , और माँ की माँ यानि नानी भी बहुत सम्मानित शास्त्रीय गायिका थीं। संगीतज्ञों के साथ ही उनकी संगति थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ये महिलाएं उन्नीसवीं सदी में कितनी प्रगतिशील थीं। राजस्थान का कोई रजवाड़ा ऐसा नहीं था जहाँ बन्नो बेगम ने अपनी सुरीली आवाज़ का जादू नहीं बिखेरा हो। आजादी के बाद सरकारी अतिथियों के सम्मान में गायकी के लिए सरकार ...

रूद्र वीणा उत्सव: अल्बर्ट हॉल म्यूज़ियम की बारादरी में गुणीजनों का संगीतमय समागम

गुलाबी नगरी जयपुर में तीन दिवसीय रूद्र वीणा उत्सव का आयोजन अपनेआप में अनूठा था। इस संगीतमय उत्सव का साक्षी बना ऐतिहासिक अल्बर्ट हॉल म्यूज़ियम। रूद्र वीणा उत्सव ने इतिहास के उस कालखंड को जीवंत कर दिया जब महलों में शास्त्रीय संगीत गुंजायमान थे। "भारतीय-अरबी शैली" में बनाई गई अल्बर्ट हॉल म्यूज़ियम की इमारत पाषाण शिल्प की अनुपम कृति है। नक्काशीदार खम्भे , घुमावदार मेहराबें , बारीक़ काष्ठकला के खूबसूरत दरवाजे , आराइश की हुई दीवारें , उनपर बूटीदार नक्काशी और बारादरी में गुणीजनों का संगीतमय समागम ! ऐसा नयनाभिराम दृश्य संगीत प्रेमियों को आज विरले ही देखने को मिलता है। प्रातःकाल हो या गोधूलि बेला संगीत साधक और सुधि श्रोता दोनों अपने-अपने आसनों पर विराजमान रहते। यहाँ संगीत-कलाकारों से सजी अल्बर्ट हाल की दीर्घाएं वीणा के सुर से मानो झंकृत हो उठीं। राजस्थान का सबसे पुराना और भव्य संग्रहालय रूद्र वीणा उत्सव के दौरान संगीत रसिकों की चहल-पहल से आबाद रहा।   पुरातत्व एवं संग्रहालय तथा कला एवं संस्कृति विभाग , राजस्थान सरकार द्वारा प्रस...

मेरे कबूतर

मेरे ऑफिस की खिड़की आजकल गुलज़ार रहती है। यह सिलसिला नवम्बर से चालू हुआ। हमें यहाँ आए एक महीने ही हुए थे। इससे पहले कि वहां गमले रखते कबूतर के जोड़े ने तिनके रखने शुरू कर दिए। आशियाना जुड़ गया तो एक सुबह उसमें एक अंडा नज़र आया। दूसरी सुबह दूसरा। हम उन्हें हर दिन निहारते थे। ढाई हफ्ते की अकुलाहट के बाद दो प्यारे-प्यारे नन्हे-मुन्ने बाहर निकले। आँखें बंद! हर समय हिलते-डुलते एक दूसरे से उलझते रहते। इनके माता-पिता ने बड़े प्यार से पाला। खाने-पीने का सामान मुँह में भर कर लाते और दोनों को बारी-बारी से खिलाते। पिता एक पंख से थोड़ा विकलांग है, शायद कभी चोट लग गई है। मगर उड़ने में कोई दिक्कत नहीं है। हफ्ता भर बीता था कि एक चील उड़ती हुई आई, हम भागकर पहुंचते इससे पहले एक बच्चे को पंजे में दबा कर ले गई। हम देखते रह गए, वह हमारी आँखों के सामने बच्चा उठा ले गई। हम मन मसोस कर रह गए। फिर दूसरे बच्चे को बचाने के लिए मैंने खिड़की की कांच और दीवार की सीमेंट को जोड़ते हुए कार्टन का डब्बा काटकर टेप से चिपका दिया। गर्मी और हवा के थपेड़ों से यह कुछ-कुछ दिनों में हट जाता था। इसलिए इसका ध्यान रखना ...