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राजगायिका बन्नो बेगम: उनसे मुलाकात अब यादों में रह गई है


ऐसी खुद्दार कलाकार शायद अब कभी देखने को न मिले। राजगायिका बन्नो बेगम इस धरती पर दोबारा नहीं पैदा हो सकती। देश की आज़ादी के बाद राजतन्त्र ख़त्म हो गया और नयी सुबह ने दस्तक दी। लेकिन राजाश्रय में रहने वाले कलाकार और हुनरमंद लोग इस नएपन में असहज महसूस कर रहे थे। वजह ये नहीं कि उन्हें आज़ादी पसंद नहीं। वजह ये थी कि कला और कलाकार की क़द्र जो राजमहल में थी वह राजतन्त्र में लुप्त हो गई। कठोर अनुशासन और मुश्किल तालीम से गुजर कर कला के मौलिक स्वरुप को रजवाड़ों तक प्रतिष्ठित करने वाले ये कलाकार महाराजाओं की दृष्टि में सर्वोत्कृष्ट थे। राजाश्रय से लोकगीत की परम्पराओं को संरक्षण व सम्मान मिला।
राजगायिका बन्नो बेगम अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी की गायिका थीं। उनकी माँ, और माँ की माँ यानि नानी भी बहुत सम्मानित शास्त्रीय गायिका थीं। संगीतज्ञों के साथ ही उनकी संगति थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ये महिलाएं उन्नीसवीं सदी में कितनी प्रगतिशील थीं।
राजस्थान का कोई रजवाड़ा ऐसा नहीं था जहाँ बन्नो बेगम ने अपनी सुरीली आवाज़ का जादू नहीं बिखेरा हो। आजादी के बाद सरकारी अतिथियों के सम्मान में गायकी के लिए सरकार उन्हें याद करती। उन्होंने राष्ट्रपति आर वेंकट रमन के आगमन पर मांड गायन पेश किया। ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ के लिए भी गाया। आमेर के महल में आखिरी बार उनका गायन तब सुना गया जब मार्च 2000 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन आये थे। सरकार ने हर बड़े अतिथि के सम्मान में उनसे गवाया पर उन्हें एक 'सम्मान' नहीं दे सकी।  
जयपुर राजघराने में राजमाता गायत्री देवी के पुत्र जगतसिंह के जन्मोत्सव पर बन्नो बेगम की ही स्वरलहरियां गूंजी थीं। अनगिनत उत्सव-त्याहारों पर अपनी आवाज़ से दरबार को गुंजायमान कर देनेवाली सुरीली आवाज़ की मलिका रजवाड़े की नूर थी। वह सुर, सौंदर्य और स्वाभिमान का संगम थी। आज़ादी ख़त्म होने के बाद इस नूर की रौनक सिमट गई क्योंकि इसकी पसंद सिर्फ अदब पसंद लोग थे। एक ख्वाहिश थी कि जाने से पहले गायकी की विरासत किसी को सौंप जाएँ। कोई नहीं मिला! और वह चुपचाप इस जहाँ से रुखसत हो गई। कब हो गई किसी को नहीं पता। सन 2000 में मुझे उस नायाब गायिका से मिलने का मौका मिला। ज़िन्दगी के कुछ पन्ने खोले थे बन्नो बेगम ने मेरे सामने (उस समय प्रकाशित भी हुआ), वही रख रही हूँ। बहुत खूबसूरत हैं ......

आपने जब गायन शुरू किया तो पर्दा प्रथा बहुत प्रचलित थी। इसे कैसे तोड़ा?
समाज में हमेशा महिलाओं के कई दर्जे रहे हैं। आज भी हैं। मैं जिस दर्जे से थी वहां पर्दा नहीं था। मेरी माँ गौहर बाई हज्जर गायिका थीं। उन्होंने गुरु हनुमान प्रसाद से गायन सीखा था। नानी ज़ेबन बाई भी गायिका थीं। पहले संगीतज्ञों का बहुत सम्मान था। हमारा उठना-बैठना इन्हीं लोगों के बीच था। वहां संगीत के अलावा कोई बात नहीं होती थी। 

आपकी मांड गायकी का सफर कैसे शुरू हुआ?
राजस्थान में मंडौती एक जगह है। मांड वहीं से निकला है। मैंने उस्ताद नज़ीर खान से संगीत की तालीम ली। जयपुर सिटी पैलेस के गुणीजनखाना में मेरी तालीम हुई। हमारे वक़्त गुरुओं को लाने-ले जाने के लिए राजदरबार की बग्घी हुआ करती थी।
मेरी सारी शिक्षा ज़बानी है। लिखा हुआ कुछ नहीं है मेरे पास। उस्ताद एक-एक बोल ठीक कराते थे, सुर सही कराते थे। बिना सही किये आगे नहीं बढ़ते थे। हम जिन शब्दों के अर्थ नहीं जानते थे उनके अर्थ पूछते थे। इससे गाने में भाव आता है। मांड में शास्त्रीय पुट है, इसलिए मैंने पहले शास्त्रीय संगीत सीखा। आज का मांड काफी बदल गया है।

विवाह के बाद अपना काम जारी रखने में अड़चन आई होगी?
मेरी शादी उनसे हुई जो मेरी आवाज़ के कायल थे। उनका नाम है अब्दुल करीम। उन्हें संगीत सुनने का शौक था। वह जागीरदार थे। उन्होंने मेरी माँ के सामने मुझसे शादी का प्रस्ताव रखा। माँ ने मंज़ूरी दे दी। जहाँ कद्रदान हों वहाँ अड़चन कैसी? हमारे समय में बड़े अदब और सलीके से गायन पेश करना होता था। आज की तरह मंच पर चक्कर नहीं काटते थे।

राज दरबार में संगीत का कार्यक्रम होता था। आपकी वेशभूषा क्या थी?
ओह! पूछिए मत। दीपावली, दशहरा, तीज, गणगौर, शरत पूर्णिमा, राजपरिवार के सदस्यों की सालगिरह और ऐसे अनगिनत अवसर होते थे जब संगीत का आयोजन होता था। राजमाता गायत्रीदेवी के पुत्र जगत सिंह के जन्म पर मैंने ही गाया था। मांड में हर अवसर के अलग-अलग गाने हैं। दरबार में हमारी पोशाक विशेष होती थी। आभूषण पोशाक के अनुरूप होते थे। सफ़ेद पोशाक के साथ सफ़ेद बसरे के मोतियों का सेट पहना जाता था। हम जापानी जॉर्जेट, शनील, सिल्क के बेस (घेरदार लहंगा), लहंगा-ब्लाउज, कुर्ती-कांचुली आदि पहनते थे। ये इतने कामदार होते थे कि पहनकर चला नहीं जाता था। इनपर सोने-चांदी का काम होता था।
हर अवसर के लिए अलग-अलग रंग की पोशाक होती थी; जैसे शरत पूर्णिमा पर सफ़ेद, दीपावली पर नीली या काली आदि। सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, पूरे दरबार और आमंत्रित लोगों की पोशाकें भी इन्हीं रंगों की होती थीं। आभूषणों में बाजूबंद, गैंज, गजरे, पोंछी, अंगूठी, आड़ (कुंदन जड़ाई का चौड़ा हार), कठला (सोने की बड़ी माला), कानों में मच्छी, माथे पर बोड़ली पहने जाते थे।

क्या एक कलाकार उन दिनों इतना खर्च उठ पाता था?
दरबार के कलाकारों को सबकुछ राजा से मिलता था। विशेष मौकों पर उपहार मिलते थे। राजा ने हमें जायदाद और जागीरें दे राखी थीं। आज़ादी मिलने से पहले तक वो सब हमारे पास थीं।

इतनी सम्मानित होने के बाद आपने गाना क्यों बंद कर दिया?
राजवाड़ा ख़त्म होने के बाद माहौल नहीं मिला। आमदनी तभी अच्छी लगती है जब इज़्ज़त मिले। मुझे वह बात नज़र नहीं आई। दुनिया में सिर्फ पैसा ही सब कुछ है? कुछ समय पहले मुझे कलकत्ता में जे के हाउस में गाने के लिए बुलाया। उन्होंने पूछा- कितना पैसा लेंगी? मैंने कहा- आपको जो देना है इन साजिंदों को दे दीजिए। कोई अपनी मर्जी से देता है तो ले लेती हूँ मगर मांग कर कुछ नहीं लेती। मुझे क्या चाहिए? जिससे (राजा से) लेना था उसने बहुत दिया। मैं चाहती हूँ मेरे पास जो कला है कोई मुझसे वह ले।

आज़ादी के बाद हमारे देश की अनेक मुस्लिम गायिकाएं पकिस्तान चली गईं। आप क्यों नहीं गईं?
आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की उस समय जयपुर में कोई फसाद नहीं हुआ। हम आज जैसे हैं तब भी वैसे ही रहते थे। महाराजा घोड़े पर घूम-घूम के लोगों से कहते थे कि दहशत में आकर मत जाओ। मुझे आजतक कभी नहीं लगा कि चली जाती तो अच्छा रहता। परिस्थिति का सामना करने के लिए सब्र और ईमान चाहिए।  अमृता मौर्य


टिप्पणियाँ

  1. ( मांड)संगीत के बारे में बहुत अच्छी जानकारी साझा की.
    मुझे संगीत सुनना बहुत पसंद है ,विशेषकर प्राचीन राग (वाणी), मांड आदि मुझे बहुत पसंद है .मै यह सुनकर उनके काल(समय) में चला जाता हूँ

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